Monday, December 9, 2013

ज़िन्दगी




भीगा सा दिन, 
भीगी सी आँखें,
भीगा सा मन ,
और भीगी सी रात है !

कुछ पुराने ख़त ,
एक तेरा चेहरा,
और कुछ तेरी बात है !

ऐसे ही कई टुकड़ा टुकड़ा दिन
और कई  टुकड़ा टुकड़ा राते
हमने ज़िन्दगी की साँसों तले काटी थी !

न दिन रहे और न राते,
न ज़िन्दगी रही और न तेरी बाते !

कोई खुदा से जाकर कह तो दे,
मुझे उसकी कायनात पर अब भरोसा न रहा !

नज़्म  © विजय कुमार

Sunday, November 17, 2013

सपने







सपने टूटते है ,
बिखरते है
चूर चूर होते है
और मैं उन्हें संभालता हूँ दिल के टुकडो की तरह
उठाकर रखता हूँ जैसे कोई टुटा हुआ खिलौना हो
सहेजता हूँ जैसे कांच की कोई मूरत टूटी हो .

और फिर शुरू होती है ,
एक अंतहीन यात्रा बाहर से भीतर की ओर
खुद को सँभालने की यात्रा ,
स्वंय को खत्म होने से रोकने की यात्रा
और शुरू होता है एक युद्ध
ज़िन्दगी से
भाग्य से
और स्वंय से ही
जिसमे जीत तो निश्चित होती है
बस
उसे पाना होता है

ताकि
मैं जी सकूँ
ताकि
मैं पा सकूँ
ताकि
मैं कह सकूँ
हां !
विजय तो मेरी ही हुई है.

कविता © विजय कुमार

Saturday, July 27, 2013

प्रेमपत्र नंबर : 1409

प्रेमपत्र नंबर : 1409

जानां ;

तुम्हारा मिलना एक ऐसे ख्वाब की तरह है , जिसके लिए मन कहता है कि , कभी भी ख़त्म नहीं होना चाहिए ... 

तुम जब  भी मिलो , तो मैं तुम्हे कुछ देना चाहूँगा , जो कि तुम्हारे लिए बचा कर रखा है ......................................

एक दिन जब तुम ;
मुझसे मिलने आओंगी प्रिये,
मेरे मन का श्रंगार किये हुये,
तुम मुझसे मिलने आना !!

तब मैं वो सब कुछ तुम्हे अर्पण कर दूँगा ..
जो मैंने तुम्हारे लिए बचा कर रखा है .....
कुछ बारिश की बूँदें ...
जिसमे हम दोनों ने अक्सर भीगना चाहा था
कुछ ओस की नमी ..
जिनके नर्म अहसास हमने अपने बदन पर ओड़ना चाहा था
और इस सब के साथ रखा है ...
कुछ छोटी चिडिया का चहचहाना ,
कुछ सांझ की बेला की रौशनी ,
कुछ फूलों की मदमाती खुशबु ,
कुछ मन्दिर की घंटियों की खनक,
कुछ संगीत की आधी अधूरी धुनें,
कुछ सिसकती हुई सी आवाजे,
कुछ ठहरे हुए से कदम,
कुछ आंसुओं की बूंदे,
कुछ उखड़ी हुई साँसे,
कुछ अधूरे शब्द,
कुछ अहसास,
कुछ खामोशी,
कुछ दर्द !

ये सब कुछ बचाकर रखा है मैंने
सिर्फ़ तुम्हारे लिये प्रिये !

मुझे पता है ,
एक दिन तुम मुझसे मिलने आओंगी ;
लेकिन जब तुम मेरे घर आओंगी
तो ;
एक अजनबी खामोशी के साथ आना ,
थोड़ा , अपनी जुल्फों को खुला रखना ,
अपनी आँखों में थोड़ी नमी रखना ,
लेकिन मेरा नाम न लेना !!!

मैं तुम्हे ये सब कुछ दे दूँगा ,प्रिये
और तुम्हे भीगी आँखों से विदा कर दूँगा
लेकिन जब तुम मुझे छोड़ कर जाओंगी
तो अपनी आत्मा को मेरे पास छोड़ जाना
किसी और जनम के लिये
किसी और प्यार के लिये
हाँ ;

शायद मेरे लिये
हाँ मेरे लिये !!!

तुम्हारा ही
मैं .........................................

Sunday, May 12, 2013

अम्मा !



अम्मा !
तेरा मुझ में अब तक बहुत कुछ बाकी है माँ.
प्यार , ममता ,क्षमा और ज़िन्दगी की छाँव !!
नमन !



Wednesday, May 1, 2013

अक्सर……………….!!!




अक्सर….
ज़िन्दगी की तन्हाईयो में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ;
तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये नज़र आते है .. 
एक तुम्हारा और दूसरा मेरा.....!
पता नहीं क्यों एक अंधे मोड़ पर हम जुदा हो गए थे ;
और मैं अब तलक उन  गुमशुदा कदमो के निशान ढूंढ रहा हूँ. 
अपनी अजनबी ज़िन्दगी की जानी पहचानी राहो में !
कहीं अगर तुम्हे “ मैं “ मिला  ;
तो उसे जरुर गले लगा लेना ,
क्योंकि वो "मैं" अब तन्हा है ......!

अक्सर ...
बारिशो के मौसम में ;
यूँ ही पानी की तेज बरसाती बौछारों में ;
मैं अपना हाथ बढाता हूँ कि तुम थाम लो  ,
पर सिर्फ तुम्हारी यादो की बूंदे ही ;
मेरी हथेली पर तेरा नाम लिख जाती है .. !
और फिर गले में कुछ गीला सा अटक जाता है ;
जो पिछली बारिश की याद दिलाता है ,
जो बरसो पहले बरसी थी .
और ; तुमने अपने भीगे हुए हाथो से मेरा हाथ पकड़ा था;
और मुझमे आग लग गयी थी .
तुम फिर कब बरसोंगी जानां ....!

अक्सर ....
हिज्र की तनहा रातो में 
जब जागता हूँ मैं - तेरी यादो के उजाले में ;
तो तेरी खोयी हुई मुस्कराहट बिजली की तरह कौंध जाती है,
और मैं तेरी तस्वीर निकाल कर अपने गालो से लगा लेता हूँ .
इस ऐतबार में कि तुम शायद उस तस्वीर से बाहर आ जाओ .
पर ऐसा जादू सिर्फ एक ही बार हुआ था ,
जो कि पिछली बहार में था,
जब दहकते फ्लाश की डालियों के नीचे मैंने तुम्हे छुआ था.
तुम जो गयी , ज़िन्दगी का वसंत ही मुरझा गया ;
अब पता चला कि ;
ज़िन्दगी के मौसम भी तुम से ज़ेरेसाया है जानां !

अक्सर ...
मैं तुम्हे अपने आप में मौजूद पाता हूँ , 
और फिर तुम्हारी बची हुई हुई महक के साथ ;
बेवजह सी बाते करता हूँ ;
कभी कभी यूँ ही खामोश सडको और अजनबी गलियों में,
और पेड़ो के घने सायो में भी तुम्हे ढूंढता हूँ.
याद है तुम्हे - हम आँख मिचोली खेला करते थे
और तुम कभी कभी छुप जाती थी 
और अब जनम बीत गए ..
ढूंढें नहीं मिलती हो अब तुम ;
ये किस जगह तुम छुप गयी हो जानां !!!

अक्सर ..... 
उम्र के गांठे खोलता हूँ और फिर बुनता हूँ
बिना तुम्हारे वजूद के .
और फिर तन्हाईयाँ डसने लगती है .. 
सोचता हूँ कि तेरे गेसुओं में मेरा वजूद होता तो 
यूँ तन्हा नहीं होता पर ..
फिर सोचता हूँ कि ये तन्हाई भी तो तुमने ही दी है ..
ज़िन्दगी के किसी भी साहिल पर अब तुम नज़र नहीं आती हो ...
अक्सर मैं ये सोचता हूँ की तुम न मिली होती तो ज़िन्दगी कैसी होती .
अक्सर मैं ये सोचता हूँ कि तुम मिली ही क्यों ;
अक्सर मैं ये पूछता हूँ कि तुम क्यों जुदा हो गयी ?
अक्सर मैं बस अब उदास ही रहता हूँ 
अक्सर अब मैं जिंदा रहने के सबब ढूंढता हूँ  .... 
अक्सर........

कविता और फोटोग्राफी  © विजय कुमार 

Monday, April 22, 2013

आदमजाद

या खुदा 
इस दुनिया के आदमजाद को अक्ल दे ,
सोच और समझ दे ;

औरते सिर्फ जिस्म के लिए नहीं होती ;
वो भी एक औरत ही है , जिसने इस आदमजाद को जन्म दिया !

औरते है तो दुनिया है !
इस बात को मजहब की तरह माने !!

या खुदा ,
इस दुनिया के आदमजाद को ये बता ,
कि औरत का वतन सिर्फ उसका बदन ही नहीं होता ,जैसा कि सारा शगुफ्ता ने कहा था !

या खुदा ,
आदमजाद को ये बता कि जानवर से भी बदतर होते जा रहा है वो .
कोई औरत उसकी बेटी ,बहन ,बीबी भी हो सकती है.

या खुदा
आदमजाद को इंसान बना !!!

विजय कुमार

Wednesday, February 27, 2013

सिलसिला



सिलसिला कुछ इस तरह बना..........!

कि मैं लम्हों को ढूंढता था खुली हुई नींद के तले |
क्योंकि मुझे सपने देखना पसंद थे - जागते हुए भी ; 
और चूंकि मैं उकता गया था ज़िन्दगी की हकीक़त से !
अब किताबो में लिखी हर बात तो सच नहीं होती न .
इसलिए मैं लम्हों को ढूंढता था ||

फिर एक दिन कायनात रुक गयी ;
दरवेश मुझे देख कर मुस्कराये 
और ज़िन्दगी के एक लम्हे में तुम दिखी ;
लम्हा उस वक़्त मुझे बड़ा अपना सा लगा ,
जबकि वो था अजनबी - हमेशा की तरह ||

देवताओ ;
मैंने उस लम्हे को कैद किया है ..
अक्सर अपने अल्फाजो में , 
अपने नज्मो में ...
अपने ख्वाबो में .. 
अपने आप में ....||

एक ज़माना सा गुजर गया है
कि अब सिर्फ तुम हो और वो लम्हा है ||

ये अलग बात है कि तुम हकीक़त में  कहीं भी  नहीं हो .
बस एक ख्याल का साया  बन कर जी रही हो मेरे संग . 
हाँ , ये जरुर सोचता हूँ कि तुम ज़िन्दगी की धडकनों में होती 
तो ये ज़िन्दगी कुछ जुदा सी जरुर होती……|| 

पर उस ज़िन्दगी का उम्र से क्या रिश्ता . 
जिस लम्हे में तुम थीउसी में ज़िन्दगी बसर हो गयी . 

और ये सिलसिला अब तलक  जारी है …….|||

Monday, February 4, 2013

मेरी पहली किताब : : उजले चांद की बेचैनी :


आदरणीय गुरुजनो  और मित्रो . 
नमस्कार ;

आप सभी से अपनी एक खुशखबरी  शेयर करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है .

मेरी पहली किताब : जो की एक कविता संग्रह है ; अब छप  चुकी है . 
इसका नाम है : उजले चांद की बेचैनी : 

इसे बोधि प्रकाशन ने छापा  है . ये किताब आपको विश्‍व पुस्‍तक मेला, प्रगति मैदान, नई दिल्‍ली
दिनांक 4 फरवरी से 10 फरवरी के दौरान ; बोधि प्रकाशन, हॉल नं: 12 बी, स्‍टॉल नं 115 में उपलब्ध रहेंगी 

इसके अलावा आप इसे बोधि प्रकाशन से भी मंगवा सकते है . उनका पता है : 
बोधि प्रकाशन, एफ 77, करतारपुरा इंडस्‍ट्रीयल एरिया, बाइस गोदाम, जयपुर 302006 राजस्थान   संपर्क करे : 082900 34632

हमेशा की तरह , इसे भी आप सभी का प्यार और आशीर्वाद  चाहिए . कृपया अपनी राय को मेरे ब्लोग के इस पोस्ट पर कमेंट के रूप में देकर मुझे अनुग्रहित करे। आपके कमेंट्स का हमेशा से ही स्वागत रहा है। 

आपका अपना 
विजय कुमार 


Saturday, January 19, 2013

खुशखबरी ! खुशखबरी !! खुशखबरी !!!



दोस्तों , मुझे आप सभी को ये बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि विश्व हिंदी सचिवालय, मरिशिश  द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता में मुझे तृतीय पुरूस्कार  मिला है .  पुरूस्कार राशि USD $ 300  है , लेकिन इससे बड़ी ख़ुशी ये है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुझे एक पहचान मिली है . हिंदी के लिए मेरा जीवन कुछ काम आया . मुझे इस बात की भी ख़ुशी है . आप सभी मित्रो का प्रोत्साहन मेरे लिए अमूल्य है . धन्यवाद. 


http://vishwahindi.com/en/contest.html



Tuesday, January 1, 2013

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!















भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा,
रवि ने किया दूर ,जग का दुःख भरा अन्धकार ;
किरणों ने बिछाया जाल ,स्वर्णिम और मधुर
अश्व खींच रहें है रविरथ को अपनी मंजिल की ओर ;
तू भी हे मानव , जीवन रूपी रथ का सार्थ बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

सुंदर सुबह का स्वागत ,पक्षिगण ये कर रहे
रही कोयल कूक बागों में और भौंरें मस्त तान गुंजा रहे ,
स्वर निकले जो पक्षी-कंठ से ,मधुर वे मन को हर रहे ;
तू भी हे मानव , जीवन रूपी गगन का पक्षी बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

खिलकर कलियों ने खोले ,सुंदर होंठ अपने ,
फूलों ने मुस्कराकर सजाये जीवन के नए सपने ,
पर्णों पर पड़ी ओस ,लगी मोतियों सी चमकने ,
तू भी हे मानव ,जीवन रूपी मधुबन का माली बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

प्रभात की ये रुपहली किरने ,प्रभु की अर्चना कर रही
साथ ही इसके ; घंटियाँ मंदिरों की एक मधुर धुन दे रही ,
मन्त्र और श्लोक प्राचीन , देवताओं को पुकार रही,
तू भी हे मानव ,जीवन रूपी देवालय का पुजारी बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

प्रक्रति ,जीवन के इस नए भोर का स्वागत कर रही
प्रभु की सारी सृष्टि ,इस भोर का अभिनन्दन कर रही ,
और वसुंधरा पर ,एक नए युग ,एक नये जीवन का आव्हान कर रही ,
तू भी हे मानव ,इस जीवन रूपी सृष्टि का एक अंग बन जा !
भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

भोर भई मनुज अब तो तू उठ जा !!!

फोटोग्राफी और कविता © विजय कुमार

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...