Saturday, May 22, 2010

मेरा होना और न होना ....



दोस्तों ; ज़िन्दगी की राह में कुछ ऐसे पल आते है ,जब सबकुछ छोड़कर कहीं चले जाने का मन करता है , मन बुरी तरह व्यथित होता है और फिर मन -मंथन के एक निरर्थक प्रयास में से कुछ सार्थक सा जन्म लेता है ... बीते दिनों कुछ ऐसा ही मन-मंथन से मैं गुजरा और फिर .....अमृत की तरह मेरी ये कविता आपके सामने प्रस्तुत है ... आप सब का जीवन शुभमंगलमय हो ..यही उस ईश्वर से कामना है , और मेरी मन से प्रार्थना है ...!!! अस्तु !!!!




मेरा होना और न होना ....


उन्मादित एकांत के विराट क्षण ;
जब बिना रुके दस्तक देते है ..
आत्मा के निर्मोही द्वार पर ...
तो भीतर बैठा हुआ वह
परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!!

तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही
जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ....!!!

प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो
तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की
मेरा होना और न होना....
सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है....!!!

मन-मंथन की दुःख से भरी हुई
व्यथा से जन्मता है हलाहल ही हमेशा
ऐसा तो नहीं है ...
प्रभु ,अमृत की भी
वर्षा करते है कभी कभी ...
तब प्रतीत होता है ये की
मेरा न होना ही सत्य है ....!!

अनहद की अजेय गूँज से ह्रदय होता है
जब कम्पित और द्रवित ;
तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है
और मेरे होने का अनुभव होता है !!!

अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
मैं ही रथ हूँ ,
मैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ; 
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ

प्रभु मेरे ;
किंचित अपने ह्रदय से
आशीर्वाद की एक बूँद मेरे ह्रदय में
प्रवेश करा दे !!!
तुम्हारे ही सहारे ही ;
मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा ...!!!

प्रभु मेरे ,
तुम्हारा ही रूप बनू ;
तुम्हारा ही भाव बनू ;
तुम्हारा ही जीवन बनू ;
तुम्हारा ही नाम बनू ;
जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू
बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है ..
तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..
प्रणाम...


 

Friday, May 14, 2010

अलविदा

सोचता हूँ 
जिन लम्हों को ;
हमने एक दूसरे के नाम किया है
शायद वही जिंदगी थी !

भले ही वो ख्यालों में हो ,
या फिर अनजान ख्वाबो में ..
या यूँ ही कभी बातें करते हुए ..
या फिर अपने अपने अक्स को ;
एक दूजे में देखते हुए हो ....

पर कुछ पल जो तुने मेरे नाम किये थे...
उनके लिए मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ !!

उन्ही लम्हों को ;
मैं अपने वीरान सीने में रख ;
मैं ;
तुझसे ,
अलविदा कहता हूँ ......!!!

अलविदा !!!!!!

Sunday, May 9, 2010

मां

दोस्तों , करीब २ साल पहले मैंने ये कविता लिखी थी , आज mother's day पर फिर से ये कविता ब्लॉग पर दे रहा हूं . मेरी माँ नहीं है और मुझे हमेशा ही माँ की जरुरत  रही है .. ... मैंने ईश्वर को नहीं देखा  ,लेकिन माँ को देखा है .. और मुझे लगता है की माँ ही ईश्वर का सच्चा स्वरुप है .. मेरी ये कविता दुनिया के सारी माताओ को समर्पित है .......मुझे ये लगता है की हर इंसान मूलभूत रूप से अपनी माँ का ही साया होता है ,ज़िन्दगी की राह पर... माँ शब्द ही जादू से भरा है .. इतनी राहत देने वाला और शांत करने वाला दूसरा शब्द कोई और नहीं है ... माँ .तुझे  प्रणाम !!!

मां

आज गाँव से एक तार आया है !
लिखा है कि ,
माँ गुजर गई........!!

इन तीन शब्दों ने मेरे अंधे कदमो की ,
दौड़ को रोक लिया है !

और मैं इस बड़े से शहर में
अपने छोटे से घर की
खिड़की से बाहर झाँक रहा हूँ
और सोच रहा हूँ ...
मैंने अपनी ही दुनिया में जिलावतन हो गया हूँ ....!!!

ये वही कदमो की दौड़ थी ,
जिन्होंने मेरे गाँव को छोड़कर
शहर की भीड़ में खो जाने की शुरुवात की ...

बड़े बरसो की बात है ..
माँ ने बहुत रोका था ..
कहा था मत जईयो शहर मा
मैं कैसे रहूंगी तेरे बिना ..
पर मैं नही माना ..

रात को चुल्हे से रोटी उतार कर माँ
अपने आँसुओं की बूंदों से बचाकर
मुझे देती जाती थी ,
और रोती जाती थी.....

मुझे याद नही कि
किसी और ने मुझे
मेरी माँ जैसा खाना खिलाया हो...

मैं गाँव छोड़कर यहाँ आ गया
किसी पराई दुनिया में खो गया.
कौन अपना , कौन पराया
किसी को जान न पाया .

माँ की चिट्ठियाँ आती रही
मैं अपनी दुनिया में गहरे डूबता ही रहा..

मुझे इस दौड़ में
कभी भी , मुझे मेरे इस शहर में ...
न तो मेरे गाँव की नहर मिली
न तो कोई मेरे इंतज़ार में रोता मिला
न किसी ने माँ की तरह कभी खाना खिलाया
न किसी को कभी मेरी कोई परवाह नही हुई.....

शहर की भीड़ में , अक्सर मैं अपने आप को ही ढूंढता हूँ
किसी अपने की तस्वीर की झलक ढूंढता हूँ
और रातों को , जब हर किसी की तलाश ख़तम होती है
तो अपनी माँ के लिए जार जार रोता हूँ ....

अक्सर जब रातों को अकेला सोता था
तब माँ की गोद याद आती थी ..
मेरे आंसू मुझसे कहते थे कि
वापस चल अपने गाँव में
अपनी मां कि गोद में ...

पर मैं अपने अंधे क़दमों की दौड़
को न रोक पाया ...

आज , मैं तनहा हो चुका हूँ
पूरी तरह से..

कोई नही , अब मुझे
कोई चिट्टी लिखने वाला
कोई नही , अब मुझे
प्यार से बुलाने वाला
कोई नही , अब मुझे
अपने हाथों से खाना खिलाने वाला..

मेरी मां क्या मर गई...
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव मर गया....
मेरा हर कोई मर गया ..
मैं ही मर गया .....

इतनी बड़ी दुनिया में ; मैं जिलावतन हो गया !!!!!

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...