Friday, August 7, 2009

झील


आज शाम सोचा ;

कि ,
तुम्हे एक झील दिखा लाऊं ...
पता नही तुमने उसे देखा है कि नही;
देवताओं ने उसे एक नाम दिया है….

उसे जिंदगी की झील कहते है...

बुजुर्ग ,अक्सर आलाव के पास बैठकर,
सर्द रातों में बतातें है कि,
वह दुनिया कि सबसे गहरी झील है
उसमे जो डूबा , फिर वह उभर कर नही आ पाया ...

उसे जिंदगी की झील कहते है...

आज शाम , जब मैं तुम्हे ,अपने संग ,
उस झील के पास लेकर गया ,
तो तुम काँप रही थी ,
डर रही थी ;
सहम कर सिसक रही थी..
क्योंकि ; तुम्हे डर था;
कहीं मैं तुम्हे उस झील में डुबो न दूँ ....

पर ऐसा नही हुआ ..
मैंने तुम्हे उस झील में ;

चाँद सितारों को दिखाया ;
मोहब्बत करने वालों को दिखाया;
उनकी पाक मोहब्बत को दिखाया ;

तुमने बहुत देर तक, उस झील में ,

अपना प्रतिबिम्ब तलाशती रही ,
तुम ढूंढ रही थी॥

कि शायद मैं भी दिखूं तुम्हारे संग,
पर ईश्वर ने मुझे छला…
मैं क्या, मेरी परछाई भी ,

झील में नही थी तुम्हारे संग !!!

तुम रोने लगी ....
तुम्हारे आंसू ,
बूँद बूँद खून बनकर झील में गिरते गए ,
फिर झील का गन्दा और जहरीला पानी साफ होते गया,
क्योंकि अक्सर जिंदगी की झीलें ,
गन्दी और जहरीली होती है ....

फिर, तुमने मुझे आँखे भर कर देखा...
मुझे अपनी बांहों में समेटा ...
मेरे माथे को चूमा..
और झील में छलांग लगा दी ...
तुम उसमें डूबकर मर गयी ....

और मैं...
मैं जिंदा रह गया ,
तुम्हारी यादों के अवशेष लेकर,
तुम्हारे न मिले शव की राख ;
अपने मन पर मलकर मैं जिंदा रह गया ...

मैं युगों तक जीवित
रहूंगा और तुम्हे आश्चर्य होंगा पर ,
मैं तुम्हे अब भी ;
अपनी आत्मा की झील में सदा देखते रहता हूँ..
और हमेशा देखते रहूंगा..

युग से अनंत तक ....
अनंत से आदि तक ....
आदि से अंत तक....
देखता रहूंगा ...देखता रहूंगा ...देखता रहूंगा ...


Wednesday, August 5, 2009

आओ इश्क की बातें कर ले…


दोस्तों , मेरी एक पुरानी कविता पेश है आपकी महफिल में , जो आज मुझे बहुत HAUNT कर रही है ...



आओ इश्क की बातें कर ले…


आओ इश्क की बातें कर ले , आओ खुदा की इबादत कर ले ,
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

लबो पर कोई लफ्ज़ न रह जाए, खामोशी जहाँ खामोश हो जाए ;
सारे तूफ़ान जहाँ थम जाये , जहाँ समंदर आकाश बन जाए......!
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

तुम अपनी आंखो में मुझे समां लेना , मैं अपनी साँसों में तुम्हे भर लूँ ,
ऐसी बस्ती में चले चलो , जहाँ हमारे दरमियाँ कोई वजूद न रह जाए !
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

कोई क्या दीवारे बनायेंगा , हमने अपनी दुनिया बसा ली है ,
जहाँ हम और खुदा हो, उसे हमने मोहब्बत का आशियाँ नाम दिया है.!
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

मैं दरवेश हूँ तेरी जन्नत का ,रिश्तो की क्या कोई बातें करे.
किसी ने हमारा रिश्ता पूछा ,मैंने दुनिया के रंगों से तेरी मांग भर दी !
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

आओ इश्क की बातें कर ले , आओ खुदा की इबादत कर ले ,
तुम मुझे ले चलो कहीं पर , जहाँ हम खामोशी से बातें कर ले.......!!!

Saturday, August 1, 2009

सपना

आदरणीय समीर लाल जी . This poem is dedicated to you. इस नज़्म का backdrop जबलपुर शहर है ,जहाँ मैं कुछ महीनो पहले गया था. वहां Bhedaghat में बहती नर्मदा नदी और marble rocks ने मुझे ये नज़्म लिखने की प्रेरणा दी. मैं ये नज़्म सारे जबलपुर वासियों और वहां के कवि तथा अन्य रचनाकारों को समर्पित करता हूँ ...


सपना

बहुत दिन बीते ... खुदा ने सोचा कि,
कुछ खुशियाँ इकठ्ठी की जाएँ ;
और दुनिया के बन्दों को बांटा जाएँ ....

खुदा को तलाश थी उन बन्दों की ,
जो थक चुके थे अपने जीवन से
और सोचते थे कि;
ये जीवन अब यूँ ही बीतेंगा ...

खुदा ने ढूँढा तो पाया ,
कि, हर बन्दा कुछ यूँ ही था ..
वो बड़ा परेशान हुआ ..
उसकी दुनिया शायद जीने लायक नहीं थी ..
खराब हो चुकी थी ..

उसने एक शहर बनाया
और उसमे बहती एक नदी बनायीं ..
उस नदी के चारो ओर
ऊंचे ऊंचे संगमरमर के पर्वत बनाये ...
और चांदनी रातो में ;
बिखरती प्यार की रौशनी बनायी !!
और वहां एक सपना भी बनाया ....
प्रेम से भरा हुआ ..
जीवन से आनंदित ...
और खुशियों से मुदित ....!!!

खुदा को इन्तजार था अपने उन बन्दों का;
जिन्होंने जीवन को सब कुछ दिया था
पर जीवन ने उन्हें कुछ नहीं दिया था ..

खुदा को इन्तजार करना पड़ा ..
बहुत लम्बा ...
बहुत ज्यादा देर तक ..
दिन पर दिन बीतते गए..
बरसों को पंख लग गए थे ...
यूँ ही कई जनम बीत गए थे...
खुदा थकने लग गया था ..
वो अब बुढा हो चूका था ..

फिर एक करिश्मा हुआ
खुदा भी हैरान था ..
किसी खुदाई ने उस पर भी रहम किया था ...
उसके बनाये दो बन्दे ...
जो कई जनम दूर थे एक दूजे से
उसी शहर में मिलने आ रहे थे...

दोनों कुछ इस तरह जी रहे थे ;
अपने अपने देश में ....
कि ज़िन्दगी ने भी सोचा ..
अल्लाह इन पर रहम करें..
क्योंकि वो रात दिन ..
नकली हंसी हंसते थे और नकली जीवन जीते थे..
ज़िन्दगी ने सोचा ,
एक बार कुछ असली रंग भर दे..
इनके जीवन में...!!!

और ..बस किसी सपने की कशिश में बंधकर दोनों
उसी शहर में पहुंचे ....
जहाँ खुदा ने वो सपना सजाया था
बस एक बार वो मिले ,
फिर उन दोनों को हाथ थामकर खुदा
उन्हें उस नदी के किनारे ले गया ..
और अपने बनाये हुए सपने में ,
उन्हें जीने का एक मौका दिया .......

सपना ...बस इतना हसीन था कि
दोनों की नींद ख़तम नहीं होती थी ..
दोनों ने सपने में दुनिया जहान को देख लिया ...

सब कुछ किसी पिछलें जनम की बात सी थी ..
दोनों कहीं से भी अजनबी नहीं थे ..
बस यूँ लग रहा था कि एक दूजे के लिए ही थे..
सपना बस पंख लगाकर उढ़ गया...

जब नींद खुली तो ;
देखा दोनों अपनी दुनिया में वापस जा चुके थे
लेकिन उस सपने की खुशबू अब तक महक रही थी ..

मैं तो अब भी वही हूँ ;
तेरे साथ...वही चाँद , वही नदी और वही रात ......
जानाँ , क्या तुम उस सपने को भूल सकी हो .....!!!

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...